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इंडियन स्कूल आफ बिजनेस का नवाचार, वन आर्थिकी को सशक्त करने सुदूर गांवों तक पहुंचा रहे बाजार

पांगी की स्वसहायता समूह की अध्य़क्ष रत्ना कुमारी ने बताया कि हमें पिछले वर्ष इस प्रोजेक्ट से पता चला कि हमारी थांगी (हेजलनट) जो हम जंगल से बीन कर लाते हैं उसकी बाहर बाजार में बहुत ज्यादा कीमत है।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Tue, 20 Sep 2022 05:18 PM (IST)Updated: Tue, 20 Sep 2022 05:18 PM (IST)
इंडियन स्कूल आफ बिजनेस का नवाचार, वन आर्थिकी को सशक्त करने सुदूर गांवों तक पहुंचा रहे बाजार
डाबर, आइटीसी, आइकिया समेत कई ब़ड़ी कंपनियां खरीद को तैयार, सरकार भी कर रही सहयोग

महेश शुक्ल, नई दिल्लीः भारत के 23 प्रतिशत हिस्से में वन हैं, जो प्राकृतिक संपदा से भरपूर हैं। इन्हीं वनों से जुड़ी आर्थिकी को मजबूत करने के लिए इंडियन स्कूल आफ बिजनेस (आइएसबी) ने एक नया बिजनेस माडल तैयार किया है। इससे रोजगार सृजन के साथ नारी सशक्तीकरण को भी बल मिलेगा। जंगल के पास बसे समुदायों को वनोपज पर अधिकार दिलाने से लेकर बड़ी कंपनियों से सही दाम दिलाने तक की यह वृहद परियोजना गति पकड़ रही है। इस पर झारखंड, ओडिशा, महाराष्ट्र और हिमाचल प्रदेश में काम चल रहा है, लेकिन इनमें हिमालयी प्रदेश अगुआ बना है। वहां के उच्च पहाड़ी क्षेत्र पांगी में इस परियोजना से ग्रामीण महिलाएं जुड़ी हैं, सरकारी अमला सहयोग कर रहा है और देश की नामचीन कंपनिय़ां भी पूरी रुचि के साथ आगे आई हैं। इस परियोजना के अंतर्गत वन से एकत्र किए गए फल, फूल और अन्य वन संपदा की पहली बिक्री इस माह हो गई है। न कोई बिचौलिय़ा है और न ही कम दाम मिलने की पीड़ा। अगली बिक्री के लिए क्रय समझौता भी हो चुका है।

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सौंदर्य प्रसाधन से लेकर औषधि तक में वन संपदा

परियोजना का काम देख रहे आइएसबी के सहायक प्रोफेसर अश्विनी छात्रे प्रफुल्लित होकर बताते हैं कि आने वाला समय देश की फारेस्ट इकोनमी को एक नए शिखर पर ले जाने का है। हमारे वनों में संपदा की कमी नहीं है जिसका प्रयोग सौंदर्य प्रसाधनों से लेकर औषधि निर्माण तक में होता है। इन्हें जंगल से एकत्र कर बेचने की बात भी नई नहीं है, बस हम इसे एक व्यवस्थित रूप देने पर काम कर रहे हैं। हम चाहते हैं कि अगली बार जब आप आंवला केश तेल, हर्बल साबुन या च्यवनप्राश का उपयोग करें तो इसमें प्रयोग वनोपज को एकत्र करने वाली महिला के घर तक उसके हिस्से की खुशी और समृद्धि भी पहुंचे।

इस प्रकार होगा कायाकल्प

प्रो. छात्रे कहते हैं कि करीब पचास वर्ष पहले हमने पर्यावरण को लेकर जंगलों के बारे में कुछ निश्चय किए। हम इन्हें काटेंगे नहीं, संवारेंगे। पेड़ काटने पर विरोध करेंगे। यह सब ठीक है, लेकिन हमने कभी यह प्रयास नहीं किया कि इन जंगलों में छिपी हजारों करोड़ रुपये की वन आर्थिकी को देश के, समाज के और महिलाओं के विकास के लिए सही तरीके से प्रयोग कर सकें। आइएसबी इसी धारणा को बदलना चाहता है। आप अपने घर में देखिए, जंगल की चीजें दिखेंगी। ड्रेसिंग टेबल से लेकर खाने की मेज तक। परियोजना के बारे में वह बताते हैं कि हम तीन मोर्चों पर काम कर रहे हैं। पहला-वन से मिलने वाली उपज से जुड़ी अर्थव्यवस्था को सुधारना, दूसरा- जलवाय़ु परिवर्तन से युद्ध में कोयले में कमी के कारण जंगल में इसका विकल्प खोजना और तीसरा कार्बन उत्सर्जन को थामने के लिए वनीकरण अभियान में ग्रामीणों की सहभागिता से उनके लिए आर्थिक लाभ की व्यवस्था करना।

महिलाओं का समर्थन करना होगा

पहले मोर्चे के बारे में विस्तार से बताते हुए प्रो. छात्रे कहते हैं कि वनोपज लाने का काम मुख्यतः महिलाएं ही करती हैं, लेकिन वही उपेक्षित हैं। बाजार तक सीधी पहुंच न होने से वनोपज की सही कीमत नहीं मिलती। वर्षों से यह चला आ रहा है। इसे हम बदलेंगे, बेहतर करेंगे। उदाहरण के लिए हिमाचल में एक मशरूम होता है, गुच्छी। कंपनियों को इसकी तलाश रहती है। महिलाएं इसे जंगल से बीनकर लाती हैं, लेकिन इसे सुखाने के लिए धागे में पिरोकर तंदूर के ऊपर टांग देती हैं। जो मशरूम तंदूर के पास होते हैं, वह अधिक सूख जाते हैं और जो दूर होते हैं वह गीले रह जाते हैं। परिणामस्वरूप कंपनी सही कीमत नहीं देती। यदि 10-12 गांवों के बीच एक सोलर ड्रायर की व्यवस्था कर दी जाए। सार्टिंग औऱ ग्रेडिंग भी महिलाओं को सिखा दी जाए तो जो मशरूम अभी 10,000 रुपये किलो में बिकता हैं, उसकी 20,000 रुपये किलो तक कीमत मिल सकती है। मेरा अनुमान है कि देश के हिमालयी और मध्य क्षेत्र में 25,000 करोड़ रुपये वार्षिक की वनोपज की आर्थिकी है। हम क्रेता, सरकार और विक्रेता को एक मंच पर लाकर इसे 75,000 करोड़ रुपये सालाना तक करने के बारे में सोच रहे हैं। बाजार को गांव तक पहुंचाने से यह संभव हो सकेगा। नया बिजनेस माडल बनाकर हम यह कर रहे हैं। महिलाएं अभी खिलौने, पापड़ आदि बनाकर कमाई कर रही हैं, लेकिन इससे बहुत अधिक भला नहीं होने वाला है। बड़े स्तर पर काम करना होगा और वन संपदा इसका अच्छा माध्यम है।

जलवायु परिवर्तन के संकट में छिपा वरदान

दूसरे प्वाइंट की बात करें तो देश ही नहीं विश्व के सामने जलवायु परिवर्तन दैत्य की तरह मुंह बाए खड़ी है, लेकिन हम इससे भी लाभ लेना चाहते हैं। कोयला के प्रयोग न्यूनतम करने की तैयारी के बीच कंपनियां इसका विकल्प खोज रही हैं। आइएसबी ने बड़ी सीमेंट कंपनियों से बात की है जो बांस का प्रयोग करना चाहती हैं क्योंकि इसकी कैलोरिफिक वैल्य़ू अधिक है। कार्बन न्यूट्रल भी होता है। हमारे देश में ओडिशा, असम आदि जगहों पर बांस बहुतायत में है। सोचिए वहां के ग्रामीण समुदायों को कितना लाभ होगा। हिमाचल जैसे पहाड़ी राज्यों में चीड़ खूब मिलता है। हम चीड़ से कोयला बनाने की योजना पर काम कर रहे हैं। इसके लिए कंपनिय़ां प्लांट लगाएंगी तो गांव-गांव तक रोजगार सृजन होगा। पत्तिय़ां बेचकर लाभ होगा, लेकिन यह छोटे समूहों में नहीं होगा। 500-1000 टन चीड़ की पत्तियों के लिए कंपनिय़ों से करार होगा। कैल के पेड़ के कोन भी प्रयोग कर सकते हैं। अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग वन संपदा का बड़े पैमाने पर व्य़ावसायिक उपयोग संभव है। हमारा प्रयास है कि महिलाओं के नेतृत्व में वनों के पास रहने वाले लोगों को लाभ हो। तीसरा बिंदु भी जलवायु परिवर्तन से ही जुडा है। सरकार नियम कड़े कर रही है। कार्बन उत्सर्जन कम करने का एक तरीका वनीकरण है। प्रो. छात्रे कहते हैं कि कंपनियां इस क्षेत्र में आएंगी। यह केवल पौधारोपण तक सीमित नहीं होगा, धरातल पर इस प्रक्रिया का पूरा प्रबंधन करना होगा जो गांव वालों और कंपनियों के बीच व्यावसायिक करार का आधार बन सकता है। कंपनियां समुदायों को पैसा देने को तैयार हैं, बस पारदर्शिता और जिम्मेदारी होनी चाहिए।

वन पर अधिकार को सहज करना

प्रो. छात्रे के अनुसार इन सारी व्यवस्थाओं के लिए जरूरी है कि समुदाय वनों के मालिक बनें। वनाधिकार अधिनियम देश में पहले से है, हम बस इसे ग्रामीणों के लिए सहज-सरल बना रहे हैं। अभी ग्रामीणों को वन रेंजर, तहसीलदार और बीडीओ के पास कागजात के लिए भटकना पड़ता है। हम एक एप बनाकर इसे एक ही स्थान पर करने जा रहे हैं। सरकार के रिकार्ड डिजिटल हैं, हम बस ग्रामीणों के लिए इसे उनके मोबाइल तक पहुंचा देंगे। हम सरकार के साथ काम करके महिलाओं के लिए बिजनेस माडल बना रहे हैं। यदि 500 महिला समूह मिलकर एक प्रोड्यूसर कंपनी बना लेंतो हम उऩको प्रशिक्षण देंगे, सहयोग करेंगे, बड़ी कंपनियां उन तक लेकर आएंगे, मार्केटिंग सिखाएंगे। सरकार ऋण देगी। स्थिति ही बदल जाएगी। जंगल से रोजगार निकलेगा। जब बड़े महिला समूह होंगे तो कच्चा माल अधिक होगा। बड़ी कंपनियां आएंगी। हम एक-एक कदम बढ़ा रहे हैं। पहले कच्चा माल ही ठीक से बेचने पर ध्यान है। फिर उत्पाद बनाकर बेचेंगे। जैसे अखरोट का तेल निकालने के लिए मशीन लगानी होगी। गांव-गांव में य़े मशीन लग सकती हैं। जंगल से बीने गए अखरोट को तेल बनाने से कीमत दस गुना हो जाएगी।

पांच वर्ष पहले आया विचार

वन आर्थिकी से ग्रामीणों का जीवन बेहतर करने और बाजार को मजबूत करने का विचार आइएसबी ने करीब पांच वर्ष पहले शुरू किया। महाराष्ट्र, ओडिशा और झारखंड में इस पर काफी काम हुआ है। हिमाचल में यह परियोजना जनवरी 2021 से आरंभ हुई है। प्रो. छात्रे बताते हैं कि पांगी जैसे बहुत अधिक ऊंचाई और दुर्गम परिस्थितयों वाले स्थान का चय़न इसलिए किया गया कि यहां परियोजना संचालित कर लेने का मतलब है कि हिमाचल में कहीं भी सफल रहेगी। अभी पांगी के 53 गांवों से वनाधिकार के लिए क्लेम जिला प्रशासन के पास भेजे जाएंगे। यह निजी स्तर पर नहीं, सामुदायिक स्तर पर होगा। बीते पखवाड़े हमने शिमला में राउंट टेबल की जिसमें डाबर, आइटीसी और आइकिया सरीखी कंपनियां आईं।

ये उत्साहित हैं ग्रामीणों के साथ काम करने को लेकर। आइएसबी इनसे सीईओ के स्तर पर बात कर सकता है, उन्हें गांवों तक बुला सकता है। आइएसबी सिंपल एग्रीगेशन, इकोनमी आफ स्केल और मैकेनाइजेशन कराएगा जिससे वन आर्थिकी तीन गुना हो सकेगी। पांगी में पहली बिक्री हो गई है। दूसरा परचेच एग्रीमेंट तैयार है। अन्य राज्यों की बात करें तो झारखंड के सिमडेगा में हम इस वर्ष साल के बीज की बिक्री कंपनियों को कराने के लिए तैयार थे, लेकिन फूल ही झड़ गए। 10-15 वर्ष में एसा होता है। अब हम महुआ के लिए तैयार कर रहे हैं। ओडिशा में मलकानगिरी में बांस के जंगल हैं। वहां पेपर और पल्प वालों के साथ बातचीत हुई है। अक्टूबर-नवंबर में बिक्री होगी।

पाइन कोन से पैकेजिंग

प्रो. छात्रे ने बताया कि पैकेजिंग मैटीरियल के लिए आइकिया से बात की गई है। परंपरागत पैकेजिंग मैटीरियल के स्थान पर पाइन कोन का प्रयोग करने पर सहमति हुई है। अभी जंगल में व्यर्थ हो रहा है. आग भी लगती है। कंपनियों ने हेजलन, वालनट के सैंपल मांगे थे। भेजे गए हैं।

कौन से फल-फूल

जंगली फल-हेजल, वाल और पाइन नट

औषधीय पौधे-काला जीरा, वन लहसुन, कडू,

तीसरा-पाइन नीडल

पांगी की स्वसहायता समूह की अध्य़क्ष रत्ना कुमारी ने बताया कि हमें पिछले वर्ष इस प्रोजेक्ट से पता चला कि हमारी थांगी (हेजलनट) जो हम जंगल से बीन कर लाते हैं, उसकी बाहर बाजार में बहुत ज्यादा कीमत है। आइएसबी के लोगों से पता चला कि हमारी थांगी बाहर अच्छे दाम में जा सकती है। इस बार हमने 2,200 रुपये प्रतिकिलो के दाम पर थांगी बेची है। अभी लोगों में थोड़ी हिचक है, लेकिन जब पूरी रकम मिलेगी तब विश्वास हो जाएगा।

पांगी की आशा वर्कर लीला ने बताया कि हम खुश हैं कि हमें थांगी बेचने पर अच्छे दाम मिल रहे है और बाहर भी नहीं जाना पड़ रहा है। आगे भी अगर हमें एसे ही आर्डर मिलेंगे तो सब अच्छे से होगा।

 

पांगी निवासी जयश्री ने बताया कि वन पट्टा अधिकार हमारे लिए जरूरी है। इस परियोजना से हर आदमी को रोज़गार मिलेगा और जो हमारी वन संपत्ति होगी, उस पर भी हमारा अधिकार होगा।


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